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सुबह की पहली किरन, जब रौशनी की लालिमा बिखेरती है
कड़कती बिजलियों के साथ जब, घटाएं अम्बर को घेरती हैं
करता है सावन जब धरती का रूप श्रृंगार
तब सोचता हूँ क्यूँ न लिखूँ मैं ?
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दिल के किसी झरोखे से जब ख्याल कोई आता है
मन रुपी सागर मैं तब एक ज्वार सा उठाता है
ख्यालों के इस सागर मैं जब कलम मेरी पतवार है
तब सोचता हूँ क्यूँ न लिखूँ मैं ?
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खाली हाथों से ये दिल करता क्यूँ कल्पनाओं का व्यापार है
सुनहरी यादों की महक देती क्यूँ दस्तक दिल को बार-बार है
चाह कर भी टूटती नहीं, ये कैसी यादों की दीवार है
देखता हूँ जब लिखता हमारा पूरा जे जे परिवार है
तब सोचता हूँ क्यूँ न लिखूँ मैं ?
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