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प्रेम जीवन का शाश्वत सत्य है, और पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी मनुष्यों को कहीं न कहीं किसी न किसी से प्रेम होता ही है चाहे वह इसे स्वीकार करे अथवा नहीं, प्रेम के कई रूप होते हैं ये, सभी जानते हैं मगर यहाँ मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूँ जो एक पुरुष और नारी के बीच होता है, और उसी प्रेम की परिणिति मैं ईश्वर द्वारा सृजित इस सुन्दर प्रकृति का विस्तार होता है !
साथियो प्रेम एक ऐसी प्राकृतिक भावना है जो मनुष्य मैं कभी भी किसी के भी प्रति जागृत हो सकती है, मगर प्रेम के बारे मैं गहराई से सोचने पर मेरे मन के बिचारों का मंथन करने पर मैंने पाया की प्रेम तो किसी भी समय हो सकता है किन्तु इस प्रेम के एक उम्र विशेष के अंतराल पर अलग – अलग पड़ाव होते हैं और हर बार प्रेम का स्वरुप अलग – अलग रूप धारण करके हमारे सामने प्रकट होता है !
वैसे तो प्रेम की उम्र की सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती मगर मेरे विचार से प्रेम का पहला पड़ाव 14 – 15 वर्ष की उम्र मैं आता है, इस उम्र मैं बच्चे अपने पंख फडफडाते हुए किशोरावस्था की देहलीज पर दस्तक देते हैं, उस वक्त इनके शरीर मैं होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन इनके भोले मन मैं हलचल सी मचाते रहते हैं, इस उम्र मैं इनका मन एक स्लेट की भांति होता है, और इस उम्र मैं किसी भी लड़के या लड़की को अपने विपरीत लिंग साथी के प्रति मन मै प्रेम पैदा हो सकता है, बिना ये जाने समझे की जिससे वह प्रेम कर रहे हैं वह कौन है कैसा है इसका उसके जीवन पर क्या प्रभाव होगा ! और हम इस प्रेम को प्रेम न कहकर एक प्राकृतिक आकर्षण भी कह सकते हैं, जो अक्सर इस उम्र मैं एक – दूसरे के प्रति हो जाता है, और कुछ समय के बाद ये स्वत ही समाप्त हो जाता है !
प्रेम का दूसरा पड़ाव 18 -20 की उम्र मैं आता है जब इंसान किशोरावस्था पार कर युवावस्था मैं कदम रखता है, युवावस्था अपने आप मैं एक ऐसी अवस्था होती है, जो अपने पूरे सुरूर पर रहती है और अपने आगे ये लोग दुनिया को कुछ नहीं समझते ! और ऐसे मैं जो प्रेम होता है वह बहुत ही खतरनाक होता है क्योंकि यही उम्र उनके पढ़ लिखकर अपना कैरियर बनाने की होती है, मगर प्रेम के जूनून मैं पढ़कर ये अपना काफी समय बर्बाद कर देते हैं! इस अवस्था के युवा सिर्फ साथ मैं मौज – मस्ती , घूमने – फिरने और ज्यादा से ज्यादा एक दूसरे के संपर्क मैं रहने को ही प्रेम समझते हैं, और अब तो इस उम्र के प्रेमी अक्सर ऐसी गलतियाँ भी करने लगे हैं जिसे हमारी संस्कृति मैं कोई जगह नहीं दी जाती, मगर जल्द ही ये प्यार का नशा भी सर से उतर जाता है, और लड़के – लड़कियां कहीं और अपनी खुशियाँ तलाशने लगते हैं, अतः मेरे विचार मैं इस प्रेम को भी अपरिपक्व प्रेम ही कहा जा सकता है, और इस उम्र का प्रेम व्यक्ति को बहुत मजा अवश्य देता है मगर स्थाई प्रेम मिलना इस उम्र मैं मुश्किल ही होता है !
प्रेम का तीसरा और बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव आता है 25 – 30 वर्ष के बीच इस उम्र के आते – आते हमारे सामाजिक परिवेश मैं लड़के लड़कियां अपने लिए एक दूसरे मैं जीवन साथी तलाशना शुरू कर देते हैं और इस प्रेम मैं काफी परिवक्वता भी पाई जाती है, लड़कियां ये देखने लगती हैं की उसके प्रेमी का सामाजिक स्तर क्या है, और यदि शादी हुई तो क्या हम दोनों एक दूसरे के साथ खुश रह पायेंगे या नहीं, कहने का तात्पर्य ये है की इस उम्र मैं दिल के साथ साथ लड़के – लड़कियों का दिमाग भी विकसित हो जाता है और वे अपना भला बुरा समझने लगते है ! अत : इस प्रेम को किसी हद तक परिवक्व कहा जा सकता है, और इस इस उम्र के आते – आते अधिकतर लड़के लड़कियां शादी के पावन वन्धन मैं बंध जाते हैं !
प्रेम का असली पड़ाव परिणय बंधन मैं बंधने के बाद ही आता है, ये चाहे प्रेम – विवाह हो या घर वालों के द्वारा किया गया पारंपरिक विवाह हो, पति-पत्नी का प्रेम अद्वितीय होता है, अभी तक प्रेम के जितने भी पड़ाव हमने देखे हैं उन सबसे ऊपर और स्थाई प्रेम यही होता है, क्योंकि इस प्रेम को सामजिक मान्यता प्राप्त हो जाती और लड़के – लड़कियों को प्यार करने की खुली छूट मिल जाती है, और शादी के बाद इस छूट का नव – विवाहित पूरा लाभ उठाते हैं, और एक दूसरे को भरपूर शारीरिक और आत्मिक प्यार करते हैं, दोनों की दुनिया सिमट कर सिर्फ एक दूसरे तक ही रह जाती है, दोनों का मन एक दूसरे के बिना कहीं नहीं लगता, यहाँ तक की जो लड़की 20 – 25 वर्ष जिस मायके मैं रहती है वह भी जब ससुराल से अपने मायके आती है तो उसे अपने पति के प्रेम का अभाव बहुत खलता है और वह जल्दी से जल्दी दोबारा अपने पति के पास जाना चाहती है, और पति महोदय का तो कहना ही क्या होता है, पत्नी की याद मैं देवदास बने नजर आते हैं ! मगर कहते हैं इंसान की जिन्दगी का अच्छा समय बहुत तेजी से गुजरता है, और शादी के बाद का यह प्यार के रस से सराबोर समय तो जैसे पंख लगाकर आता है और कब फुर्र हो जाता है, इसका पता तब चलता है जब प्यार के इस आत्मिक और शारीरिक मंथन की परिणिति मैं एक नए जीवन का सृजन होता है, और पति और पत्नी का प्यार पूर्णता को प्राप्त होता है !
यहाँ से जिन्दगी मैं प्यार का अगला पड़ाव शुरू होता है, जो की प्यार का सबसे कठिन और संघर्षपूर्ण पड़ाव होता है, बच्चे की उत्पत्ति के बाद दोनों का ध्यान बच्चे की ओर भी जाता है, और बच्चे की जिम्मेदारी आ जाने की बजह से कम से कम पत्नी का प्रेम पति के प्रति कम प्रतीत होने लगता है जबकि शायद ऐसा होता नहीं है मगर जिम्मेदारियों की बजह से ऐसा लगने लगता है ! पति भी इस उम्र मैं ज्यादा से ज्यादा कमाने की आपा धापी मैं लग जाता है और समय गुजरता जाता है, इस बीच कुछ और बच्चे और फिर बड़े होते बच्चों की बढती जिम्मेदारियां कहीं न कहीं प्रेम मैं एक ठहराव सा लाती दिखतीं हैं, बच्चों की इन जिम्मेदारियों को पूरा करते करते ही प्रेम का ये पड़ाव हर इंसान को पार करना होता है, इस पड़ाव मैं प्रेम होता है मगर यह सिर्फ विपरीत परिस्तिथियों मैं ही दिखाई देता है जैसे पति या पत्नी पर कोई विपत्ति आने पर ही इस प्रेम का पता चलता है, अन्यथा प्रेम को व्यक्त करने का समय कम से कम पति के पास तो नहीं होता, हाँ पत्नी अवश्य अपने सच्चे प्रेम को पति के सामने वक्त – वक्त पर दर्शाती रहती हैं ! और उम्र का यह पड़ाव उसी उहापोह मैं गुजरता है !
प्रेम का अगला पड़ाव और अंतिम पड़ाव इसके बाद आता है, और शायद यहीं ख़त्म होता है ! ये पड़ाव है जीवन की ढलती सांझ बुढापा, जब व्यक्ति अपनी जवानी की भाग दौड़ और अपने कर्तव्यों के बोझ को ढोते हुए जीवन से थक जाता है, अपने काम से रिटायर हो जाता है, दोस्तों संगी साथियों का भी साथ लगभग नगण्य हो जाता है ! तब उसे सिर्फ और सिर्फ अपने जीवन साथी के साए मैं ही प्रेम की की ठंडी छाया मिलती है, जीवन भर संसार रूपी इस सागर मैं प्रेम के लिए जो मंथन इंसान करता रहा उसका अमृत निकलकर उम्र के इस पड़ाव मैं ही प्राप्त होता है, और प्रेम के इस मंथन मैं निकलने वाली कडवाहट जीवन भर पति और पत्नियों के सम्बन्ध मैं देखी जा सकती है ! उम्र के इस पड़ाव पर इंसान को सच्चे प्यार की सबसे ज्यादा जरुरत महसूस होती है, और तब इसका महत्त्व भी समझ मैं आता है ! वह पत्नी जो ता उम्र पति से अपने लिए समय न निकलने की शिकायत करती रहती है उसे यह महसूस होता है की मेरे पति ने उस वक्त जो किया मेरे और परिवार की सुख सुविधाओं के लिए क्या इसने अपने लिए क्या किया जिसके लिए मैंने हमेशा इन पर दोष मढ़ा है ! दूसरी ओर पति को भी शायद यह महसूस होता है की उसे और उसके परिवार को खुश रखने के लिए उसकी पत्नी ने क्या – क्या कुर्बानियां दीं ! बल्कि अपने जीवन का अधिकांश समय उसने मेरे परिवार की खुशियों की वेदी पर आहूत कर दिया, इस भावना के आते ही दोनों का प्रेम और प्रगाढ़ हो जाता है और एक दूसरे के प्रति प्रेम के अलावा सम्मान की भावना की उत्पत्ति होती है !
प्रेम के अंतिम पड़ाव पर प्रेम और सम्मान की उत्पत्ति पति और पत्नी को एक दूसरे के इतना करीब ला देती है, की उन दोनों को अपना जीवन एक – दूजे के बिना अपूर्ण लगने लगता है, और तब लगता है कि प्रेम अपने विभिन्न पड़ावों को लांघता हुआ, सम्पूर्णता को प्राप्त हुआ ! फिर आती है जीवन के अंतिम सत्य की बारी याने मौत और मैंने ये बात कई बार नोट की है की इस उम्र मैं जब किसी का हमसफ़र बिछड़ता है, तो उसका जीवन साथी भी उसकी बिरह वेदना नहीं सह पाता और जल्द ही दुनिया छोड़कर अपने अमर प्रेम को खोजने एक अनजाने सफ़र पर निकल पड़ता है …………
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